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कंकाल-अध्याय -१७

'वाह, इस साधारण आतंक में ही तुम अपने को नहीं सँभाल सकते थे, अच्छे सवार हो!' युवक हँसने लगा। 'किस शुभनाम से आपका स्मरण करूँगा?' 'तुम विचित्र जीव हो, स्मरण करने की आवश्यकता क्या, मैं तो प्रतिदिन तुमसे मिल सकता हूँ।' कहकर युवक जोर से हँसने लगा। विजय उसके स्वच्छन्द व्यवहार और स्वतन्त्र आचरण को चकित होकर देख रहा था। उसके मन में इस युवक के प्रति अकारण श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसकी मित्रता के लिए वह चंचल हो उठा। उसने पूछा, 'आपके यहाँ आने में कोई बाधा तो नहीं।' युवक ने कहा, 'मंगलदेव की कोठरी में आने के लिए किसी को भी रोक-टोक नहीं, फिर तुम तो आज से मेरे अभिन्न हो गये हो!' समय हो गया था। होस्टल से निकलकर दोनों विद्यालय की ओर चले। भिन्न-भिन्न कक्षाओं से पढ़ते हुए दोनों का एक बार मिल जाना अनिवार्य होता। विद्यालय के मैदान में हरी-हरी धूप पर आमने-सामने लेटे हुए दोनों बड़ी देर तक प्रायः बातें किया करते। मंगलदेव कुछ कहता था और विजय बड़ी उत्सुकता से सुनते हुए अपना आदर्श संकलन करता। कभी-कभी होस्टल से मंगलदेव विजय के घर पर आ जाता, वहाँ से घर का-सा सुख मिलता। स्नेह-सरल स्नेह ने उन दोनों के जीवन में गाँठ दे दी। किशोरी के यहाँ शरदपूर्णिमा का शृंगार था। ठाकुर जी चन्द्रिका में रत्न-आभूषणों से सुशोभित होकर शृंगार-विग्रह बने थे। चमेली के फूलों की बहार थी। चाँदनी में चमेली का सौरभ मिल रहा था। निरंजन रास की राका-रजनी का विवरण सुना रहा था। गोपियों ने किस तरह उमंग से उन्मत्त होकर कालिन्दी-कूल में कृष्णाचन्द्र के साथ रास-क्रीड़ा में आनन्द विह्वल होकर शुल्क दासियों के समान आत्मसमपर्ण किया था, उसका मादक विवरण स्त्रियों के मन को बेसुध बना रहा था। मंगलगान होने लगा। निरंजन रमणियों के कोकिल कंठ में अभिभूत होकर तकिये के सहारे टिक गया। रातभर गीत-वाद्य का समारोह चला। विजय ने एक बार आकर देखा, दर्शन किया, प्रसाद लेकर जाना चाहता था कि समाने बैठी हुई सुन्दरियों के झुण्ड पर सहसा दृष्टि पड़ गयी। वह रुक गया। उसकी इच्छा हुई कि बैठ जाये; परन्तु माता के सामने बैठने का साहस न हुआ। जाकर अपने कमरे में लेटा रहा। अकस्मात् उसके मन में मंगलदेव का स्मरण हो गया। वह रहस्यपूर्ण युवक के चारों ओर उसके विचार लिपट गये; परन्तु वह मंगल के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नहीं कर सका, केवल एक बात उसके मन में जग रही थी-मंगल की मित्रता उसे वांछित है। वह सो गया। स्कूल में पढ़ने वाला विजय इस अपने उत्सवों की प्रामाणिकता की जाँच स्वप्न में करने लगा। मंगल से इसके सम्बन्ध में विवाद चलता रहा। वह कहता कि-मन एकाग्र करने के लिए हिन्दुओं के यहाँ यह एक अच्छी चाल है। विजय तीव्र से विरोध करता हुआ कह उठा-इसमें अनेक दोष हैं, केवल एक अच्छे फल के लिए बहुत से दोष करते रहना अन्याय है। मंगल ने कहा-अच्छा फिर किसी दिन समझाऊँगा। विजय की आँख खुली, सवेरा हो गया था। उसके घर में हलचल मची हुई थी। उसने दासी से पूछा, 'क्या बात है?' दासी ने कहा, 'आज का भण्डारा है।' विजय विरक्त होकर अपनी नित्यक्रिया में लगा। साबुन पर क्रोध निकालने लगा, तौलिये की दुर्दशा हो गयी। कल का पानी बेकार गिर रहा था; परन्तु वह आज नहाने की कोठरी से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था। तो भी समय पर स्कूल चला गया। किशोरी ने कहा भी, 'आज न जा, साधुओं का भोजन है, उनकी सेवा...।' बीच ही में बात काटकर विजय ने कहा, 'आज फुटबॉल है, मुझे शीघ्र जाना है।' विजय बड़ी उत्तेजित अवस्था में स्कूल चला गया। मंगल के कमरे का जंगला खुला था। चमकीली धूप उसमें प्रकाश फैलाये थी। वह अभी तक चद्दर लपेटे पड़ा था। नौकर ने कहा, 'बाबूजी, आज भी भोजन न कीजियेगा।' बिना मुँह खोले मंगल ने कहा, 'नहीं।' भीतर प्रवेश करते हुए विजय ने पूछा, 'क्यों क्या। आज जी नहीं आज तीसरा दिन है।' नौकर ने कहा, 'देखिये बाबूजी, तीन दिन हो गये, कोई दवा भी नहीं करते, न कुछ खाते ही हैं।' विजय ने चद्दर के भीतर हाथ डालकर बदन टटोलते हुए कहा, 'ज्वर तो नहीं है।' नौकर चला गया। मंगल ने मुँह खोला, उसका विवर्ण मुख अभाव और दुर्बलता का क्रीड़ा-स्थल बना था। विजय उसे देखकर स्तब्ध रह गया। सहसा उसने मंगल का हाथ पकड़कर घबराते हुए स्वर में पूछा, 'क्या सचमुच कोई बीमारी है?' मंगलदेव ने बड़े कष्ट के साथ आँखों में आँसू रोककर कहा, 'बिना बीमारी के भी कोई यों ही पड़ा रहता है।'

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